ज़िंदगी, ज़िंदगी, ज़िंदगी....!
कैसे कहूँ तुझसे ,
मेरे क़दम भी तेरे ,
ज़मीं भी तू क़दमों तले,
फिरभी क्यों करके ,
खिसक जाती है तलेसे ?
क्योंकर खुदको खुदसे,
सज़ा देती है तू ?
बेहद थक गयी हूँ,
पहेलियाँ ना बुझवा तू,
इतनी क़ाबिल नही,
इक अदना-सा ज़र्रा हूँ,
कि तेरी हर पहेली,
हरबार सुलझा सकूँ......
के सदियोंसे अनबुझ
रहती आयी है तू......
जो अक्षर लगे थे ,
कभी रुदन विगत के,
या बयाँ वर्तमान के,
क्या पता था, वो मेरे,
आभास थे अनागातके ?
मेरा इतिहास दोहराके,
क्या पा रही रही है तू?
क्या बिगाडा तेरा के,
ये सब कर रही है तू?
कुटिल-सी मुस्कान लिए,
इस्क़दर रुला रही है तू?
जानती हूँ, दरपे तेरे,
कोई ख़ता काबिले,
माफ़ी हरगिज़ नही,
पर ये ख़ता, की है तूने...
इतिहास हरबार दोहराए,
जा रही तू, और मुझे,
ख़तावार ठहरा रही है तू??
ज़िंदगी क्या कर रही है तू??
किस अदालातमे गुहार करुँ,
हर द्वार बंद कर रही तू??
कितनी अनबुझ पहेली,
युगोंसे रही है तू...!!!
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Life is always to complain, nobody is content with it... terrific poetry...
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