सदियाँ गुज़र रही हैं,
मुझे रोज़ मरते, मरते,
सैंकडों आफ़ताब आते रहे,
मुझे रौशन करते, करते,
मेरी चिता जला गए....
तिनका तिनका जलके,
ज़र्रा, ज़र्रा बिखरके,
कभी आसमानों पे उड़के,
कभी बियाबाँ मे गिरके,
फिरभी चिंगारियाँ बची हैं...
कहाँसे आती हैं ये हवाएँ?
जो नही देतीं हैं बुझने?
क्या राज़ है, या कोई चाल है,
ये किसका कमाल है?
याकि सवाल लाजवाब है?
शमा
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