शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

दूर रेह्केभी क्यों....

दूर रेह्केभी ......

दूर रेह्केभी क्यों
इतने पास रहते हैं वो?
हम उनके कोई नही,
क्यों हमारे सबकुछ,
लगते रहेते हैं वो?
सर आँखोंपे चढाया,
अब क्यों अनजान,
हमसे बनतें हैं वो?

वो अदा थी या,
है ये अलग अंदाज़?
क्यों हमारी हर अदा,
नज़रंदाज़ करते हैं वो?
घर छोडा,शेहेर छोडा,
बेघर हुए, परदेस गए,
और क्या, क्या, करें,
वोही कहें,इतना क्यों,
पीछा करतें हैं वो?

खुली आँखोंसे नज़र
कभी आते नही वो!
मूंदतेही अपनी पलकें,
सामने आते हैं वो!
इस कदर क्यों सताते हैं वो?
कभी दिनमे ख्वाब दिखलाये,
अब क्योंकर कैसे,
नींदें भी हराम करते हैं वो?

जब हरेक शब हमारी ,
आँखोंमे गुज़रती हो,
वोही बताएँ हिकमत हमसे,
क्योंकर सपनों में आयेंगे वो?
सुना है, अपने ख्वाबों में,
हर शब मुस्कुरातें हैं वो,
कौन है,हमें बताओ तो,
उनके ख्वाबोंमे आती जो?
दूर रेह्केभी क्यों,
हरवक्त पास रहेते हैं वो?
शमा

2 टिप्‍पणियां:

  1. shama ji

    mujhe aapki ye kavita bahut acchi lagi hai .. man ke bhaavo ko nehatreen dang se ukera hua hai
    itni sundar abhivyakti ....

    badhai sweekar karen..

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  2. vo door rahen ya pas rahen'
    khwabon me basaye rahte hain.

    kuch bhee to naheen,
    sabkuch hain magar
    apna sa banaye rakhte hain .

    maine sirf yah koshis kee ki aapke bhaon ko alag shabd de doon .alag se lahze me .gussa to naheen karengee ? tab fir muafee chahoonga .

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