बुधवार, 29 जुलाई 2009

ना खुदाने सताया...

ना खुदा ने सताया
ना मौतने रुलाया
रुलाया तो ज़िंदगी ने,
माराभी उसीने
ना शिकवा खुदासे
ना गिला मौतसे
थोडासा रेहेम माँगा
तो वो ज़िंदगी से
वही ज़िद करती है
जीनेपे अमादाभी
वही करती है
मौत तो राहत है
वो चूमके पलकें,
गहरी नींद सुलाती है!
ये तो जिन्दगी है
जो नींदे चुराती है!
पर शिकायत से भी,
डरती हूँ उसकी,
ग़र कहीँ सुनले,
एक ऐसा,पलटके ,
तमाचा जड़ दे,
ना जीनेके क़ाबिल रखे,
ना मरनेकी इजाज़त दे...

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

ज़िंदगी, ज़िंदगी, ज़िंदगी....!

ज़िंदगी, ज़िंदगी, ज़िंदगी....!
कैसे कहूँ तुझसे ,
मेरे क़दम भी तेरे ,
ज़मीं भी तू क़दमों तले,
फिरभी क्यों करके ,
खिसक जाती है तलेसे ?

क्योंकर खुदको खुदसे,
सज़ा देती है तू ?
बेहद थक गयी हूँ,
पहेलियाँ ना बुझवा तू,
इतनी क़ाबिल नही,
इक अदना-सा ज़र्रा हूँ,
कि तेरी हर पहेली,
हरबार सुलझा सकूँ......
के सदियोंसे अनबुझ
रहती आयी है तू......

जो अक्षर लगे थे ,
कभी रुदन विगत के,
या बयाँ वर्तमान के,
क्या पता था, वो मेरे,
आभास थे अनागातके ?

मेरा इतिहास दोहराके,
क्या पा रही रही है तू?
क्या बिगाडा तेरा के,
ये सब कर रही है तू?
कुटिल-सी मुस्कान लिए,
इस्क़दर रुला रही है तू?

जानती हूँ, दरपे तेरे,
कोई ख़ता काबिले,
माफ़ी हरगिज़ नही,
पर ये ख़ता, की है तूने...
इतिहास हरबार दोहराए,
जा रही तू, और मुझे,
ख़तावार ठहरा रही है तू??

ज़िंदगी क्या कर रही है तू??
किस अदालातमे गुहार करुँ,
हर द्वार बंद कर रही तू??
कितनी अनबुझ पहेली,
युगोंसे रही है तू...!!!

बुधवार, 1 जुलाई 2009

वो महकी कली थी....

शबनम धुली थी,मेहकी कली थी,
पंखुडी नाज़ुक, खुलने लगी थी,
मनके द्वारोंपे दस्तक हुई थी,
वो चाहत किसीकी बनी थी!
शबनम धुली थी ....

बिछुड्नेवाली थी उसकी वो डाली,
जिसपे वो जन्मी,पली थी,
उसे कुछ खबरही नही थी,
पीकी दुनिया सजाने चली थी,
शबनम धुली थी.. ...

बेसख्ता वो झूमने लगी थी,
पुर ख़तर राहोंसे बेखबर थी
वो राह प्यारी, वो मनकी सहेली,
हाथ छुडाये जा रही थी,
शबनम धुली थी.....

कहता कोई उससे कि पड़ेगी,
सबसे जुदा,वो बेहद अकेली,
तो कली, सुननेवाली नही थी!
पलकोंमे ख्वाबोंकी झालर बुनी थी!
शबनम धुली, वो मेहकी कली थी,
वो सिर्फ़ मेहकी कली थी.....

"एक बार फिर दुविधा..",इस मालिका में इसे लिख चुकी हूँ...एक कड़ी की शुरुआत इस रचनासे की थी...